Monday 1 August 2011

वोफ वो 12 दिन ..... नक्‍सलियों के गिरफत में ......खौफ का मंजर, एक सच्‍ची घटना


ओफफ ! वो बारह दिन

  आज भी मुझें यकीन नही होता है कि मै इस दुनिया में जिंदा हॅू । कई बार मैं खुद ही अपने शरीर पर चिकोटी काटकर यह सुनिश्चित करता हॅू कि मैं वास्तव में जीवित ही हॅू तो कभी सपने में अपने मृत देह को देखता हॅू कभी खुद का जिंदा रहना सपने जैसा लगता हैं मैंने साक्षात यमदूतों को के साथ 12 दिन अत्यंत दहशत व पीड़ा में बिताए हैं । हर पल मौत दस्तक देती थी । नक्सलियों ने मेरी मौत के परवाने पर हस्ताक्षर ही रि दिया था । संगीनों के साए में ऐसे लोगों के साथ दिन गुजारे हैं जिनके लिये किसी की भी हत्या करना सब्जी-भाजी काटने जैसा हैं ।बीहड़ जंगल में दरिंदे नक्सलियों के बीच मैं अकेला इंसान था। दन पलों को याद करके आज भी सिहर जाता हॅू। जंगल में रहते-रहते ये नक्सली जानवर ही हो गए हैं ।इनका खान-पान, रहन-सहन व बोली-बात सब कुछ आम इंसान से उलट हैं । ईश्वर व पुुरखों का आर्शिवाद हैं, कि मेरी जिंदगी के दरवाजें को खटखटाकर मौत खाली हाथ लौट गई । यह सच है कि वक्त के पहले मृत्यु नहीं हो सकती है । मेरी दूसरी व नई जिंदगी मिलने की सच्ची कहानी राजनांदगांव जिला स्थित ग्राम बिछिया के जंगल से शुरू होती है । चूंकि मेरे जीवन के शुरूआती दिन संघर्षो से भरे थे इस कारण मेरे अंदर के हौसले ने मुझे मृत्यु के सामने टिके रहने का साहस प्रदान किया । घर की आर्थिक फांके मस्ती की थी । जब मैं आठ वर्ष का था तभी पिता को भगवान ने अपने पास बुला लिया ।पिता एक निजी बस सर्विस में डायवर के पद पर कार्यरत् थे । उनका देहांत हार्ट अटैक से हो गया था । वे मेरे नाजुक व मासूम कंधों पर मां के अलावा दो छोटे जुडवा भाई -बहन की जिम्मेदारी छोड़ गये थें । शरीर से कमजोर मेरी मां घर में ही बीड़ी बनाकर आथर््िाक स्थिति को पटरी पर लाने का असफल प्रयास करती थी । गुजर बसर इस बीड़ी की कमाई से संभव नही था लिहाजा मैने मां के हाथ मजबूत करने छबिगृह में फल्ली बेचने के साथ घरों की रंगाई पोताई करने भुट्टा बचने का काम शुरू किया । इसके बाद मेडिकल स्टोर्स , किरान दुकान व पोहा मिल में काम करते-करते पढ़ाई भी की और स्नातक हो गया । भाई-बहन को भी पढ़ाया । मैं पुराने खाली बारदाना खरीदने के काम में लगा था । इस सिलसिले में मुझे दूसरे शहरों व गांवो में जाना पड़ता था । तब इस क्षेत्र में नक्सलियों का इतना आतंक नही था । एक दिन मैं बारदाना खरीदने बैहर के अंदरूनी इलाके में स्थित ग्राम बिछिया चला गया । मैने देखा कि पूरा गांव वीराने में तब्दील हो गया हैं । मेरे सेठ की दी हुई मोटर सायकल से मैने गांव की गलियों का चक्कर लगाना शुरू किया तो एक गली में हरे रंग की वर्दी पहने तथा हाथों में बंदूक थामे करीब ढाई सौ लोगों ने मुझें रोक लिया । इनमें करीब 70-80 महिलाएॅ भी थी । यहां मैने पहली बार नक्सलियों को देखा था । ये लोग गॉव में ग्रामीणों को एकत्र कर बैठक ले रहें थे ।आधे घंटे की बैठक के बाद ग्रामीण आपने-अपने रास्ते चले गये । मुझे रोककर रखा गया था । नक्सलियों के लिडर ने मुझे बुलाकर मेरे बारे में पुछा । मैने अपना नाम पता सहित काम की पूरी जानकारी दी । इजने में एक नक्सली मेरे पास आया और जोरदार तमाचा मारकर पुछने लगा के पुलिस के लिये कब से मुखबिरी कर रहें हों हमारे बारे में क्या-क्या जानते हों ? मैं भय से कांपने लगा था । मुझें सामने यह यमदूत नजर आ रहे थें ।मुझे लगा बस अब बंदूक की गोलियां मेरे सीने के पार होने वाली है । डर के कारण जुबान से बोल नही फुट रहे थे । मैं उनके सवालों के जवाब नही दे पा रहा था । नक्सली बारी-बारी से मेरी पिटाई करते रहे । उनके मुखिया ने मराठी भाषा में अपने साथियों से आगे की योजना के बारे में बात की । तीन-चार नक्सलीमेरी निगरानी मंे तैनात थे चॅूकि मैं मराठी भाषा हॅू इस कारण मैं उनकी बाते समझ गया सभी नक्सली अलग-अलग ग्रुप बनाकर अलग-अलग दिशाओं की ओर चल पडे थे । जिस ग्रुप में मुझें रखा गया था उनमें 4 पुरूष और 6 महिलाएॅ थी मैनें अपनी रिहाई की काफी मिन्नतें कि लेकिन वे इतने निष्ठुर थे कि उनके कान में जॅुू तक नही रेंगा । थोडी देर में मुझे अहसास हुआ कि दनमें से एक नक्सली समझदार और दयालू किस्म का हैं । उसने कहा कि जब तक हमें तुम्हारें बारे में पूरी जरह से तसल्ली नही हो जाती तुम्हें हमारे साथ ही रहना होगा । मरता क्या न करता । उनकी बाते मानने के सिवाय और कोई चारा भी नही था ।और इसी मे भलाई नजर आ रही थी । उनका कहना मानने पर जीवित छोड़ दिये जाने की आशा तो थी । भागने की कोशिश करने पर तो मौत सुनिश्चित थी । सभी नक्सहलयों के पास एक-एक पिट्ठू बैग थे । पिट्ठू में राशन,दवा,कपड़े और अन्य सामान थें उन्होंने मेरी पीठ में भी कुछ सामान लाद दिया था । मेरी मोटर सायकल तो गांव में ही खड़ी थी ।मैं उनके साथ चलते रहा । वे मुझें कहां ले जा रहे थे मुझे पता नही था । उन्हें भी अपनी मंजिल का पता नही था । वे तो पहले से ही भटके हुए थे ।मैं सोच रहा था कि मैं अपने जीते जी मौत की यात्रा कर रहा हॅू । हे भगवान क्षण भर में प्राण निकल जाना वास्तव में कितना सुखद होता होगा । लेकिन मौत की यह यात्रा कितनी पीड़ाजनक व कठिन है । बुजुर्गो से सुना था कि यमदूत प्राण अरने भैस पर सवार होकर आते है लेकिन ये यमदूत तो बुजूर्गो  के बताये व पुराणों में उल्लेखित स्वरूप से ठीक विपरित हैं । मेरे सिवाय कौन चला होगा मौत कि उंगली पकड़कर ।शाम का  लगभग साढे़ सात बजे का समय रहा होगा । गर्मी का मौसम चांदनी रात और घना जंगल । हम एक गांव पहुंचे । गांव का नाम नहीं पता और तब उनसे पूछने की हिम्मत भी नही हुई । हमने एक घर में प्रवेश किया । संभवतः इस मकान में रहने वाले को हमारे आने की सूचना पहले से ही मिल गई थी इसी कारण इसी कारण तो हमारे लिए भोजन तैयार था । रात दस बजे हमने खाना खाया । मुझे  मकान के उस हिस्से में सुलाया गया जिसे गांवों में पठउंवा कहा जाता है । मैं काफी थका था लिहाजा पैरे के बिस्तर  पर लेटते ही आंख लग गई लेकिन डरावने सपने पूरी रात आते रहे । तड़के साढ़े तीन बजे रायफल  के कूंदे से मारकर मुझे जगाया गया । मुझे यकीन ही नहीं हो रहा था कि मैं जिंदा हूं । घर के लोग सोए हुए थे । वे लोगु मुझे लेकर फिर चल पडे़ । काफी दूर चलने के बाद वे मुझे लेकर एक पथरीली पहाड़ी में चढ़ गए तब तक वे जापन गए थे कि मैं मराठी भाषी हूं । इस कारण उन्होंने मेरे सामने आपस में कोई भी गोपनीय बात नहीं की । बीच बीच में वे मुझसे यह जरूर पूछते थे कि मैं किसके कहने पर बिछिया गांव पहुंचा था । मैं लाख सफाई देता रहा लेकिन वे मानने वाले कहां थे ! पहाड़ी पर ही नक्सलियों ने खाना बनाया । खाने में चांवल व भाजी की सब्जी थी ।इस दौरान दो सब्जी थी। इस दौरान दो सशस्त्र  नक्सली बारी  बारी से पहरा देते रहे। वे पहाड़ी क नीचे नजरे लगाये थे। हम सबने खाना खाया बर्तन मैने साफ किया। चार लडकियों ने मुझे अपने पास बुलाया और बारी-बारी से अपने पैरों की मालिश करवाई। मुझे यातनाएं भी दी गई । महिला नक्सलियों ने मेरे हाथों को गर्म चाकू से दागा, सिगरेट को मेरे हाथों में बुझाया तथा पैर में चाकू से गहरा जख्म भी किया। जख्म की मरहम पट्टी भी उन्होंने की दिन के समय ये लोग उंचे स्थान पर रहते थे तथा शाम ढलने पर नीचे उतरकर किसी भी गांव में किसी के मकान में रूकते थे। गांव वाले नक्सलियों की पूरी खातिरदारी करते थे उन्हे पूरा सहयोग देते थे। गांव के कुछ लोग उनसे मिलने पहाडी में आते थे। जो संभवतः इनके खबरी होते थे । इन्ही के माध्यम से रात में रूकने व खाने की व्यवस्था होती थी। एक दिन दोपहर में एक नक्सलि ने सब के सामने महिला नक्सलि को अपने साथ ले जाकर मेड़ की आड में अपनी हवस की आग को शंात किया। रोज-रोज की प्रताडना से तंग आकर मैंने एक दिन एक नक्सली की पिस्तौल झपटकर अपनी कनपटी पर लगाकर घोडा दबा दिया था। पिस्तौल में गोली नहीं थी। इस कारण मैं बच गया मेरी इस हरकत पर  उन्होंने मुझे खूब मारा, उनके पास आने वाले ग्रामीण जो खबरी या जासूस थे, उन्होंने मेरे बारे में सारी जानकारी एकत्र कर नक्सलियों को दी थी। इससे नक्सलियों को यकीन हो गया था कि मैं पुलिस का मुखबिर नहीं हूं। इसके बाद उन्होंने मुझसे नरमी बरतनी शुरू की। कभी-कभी गरीबी के आगे मुझे अपनी मौत भली लगने लगती थी, लेकिन परिवार की जिम्मेदारी याद आ जाती थी। उनके साथ मुझे दस दिन हो गये थे। एक दिन मैंने उनसे पूछा कि रोज-रोज भाजी बनाते हो दूसरी सब्जी क्यों नहीं बनाते। दूसरे दिन नक्सलियों ने गोस्त की सब्जी बनाई। खुद तो उन्होनें  इसे बड़े चाव से खाया और मुझे भी दिया। मैंने पूछा कि यह किसका गोस्त है तो उन्होंने मुझे धमकाते हुए कहा कि चुपचाप खा लो। मैंने जब खाना खत्म किया तो उन्होंने बताया कि रास्ते में एक सांप दिखा था उसे पकड़कर व काटकर बनाया था। जंगल में सब्जी कहां से लाएंगे। पेड़ के पत्तों को तोड़कर बनाते हैं। ग्यारहवें दिन गांव से तीन नये लोग आये इन्होंने नक्सलियों से तीन घंटे बात की और वापस चले गये। उस दिन जंगल में ही रात काटना था। खाना खाने के बाद मैं एक बड़े से पत्थर पर सो गया था। सुबह नींद खुली तो नक्सलियों को अपने आसपास न देखकर अवाक् रह गया। मैं अपनी खुशी भी प्रगट नहीं कर पा रहा था। वहां से जाने की भी हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था। मुझे डर था कि कहीं जाने लगा और नक्सली आ गये तो मुझपर भागने का आरोप लगाकर पिटाई न कर दें। उस समय मेरी स्थिति क्या थी मैं शब्दों में व्यक्त नहीं कर सकता। बीहड़ जंगल में मैं अकेला खड़ा था मौत का फंदा मेरे गले से हट चुका था। मेरी जिंदगी मेरे हाथों में थी। यह बारहवां दिन था हौसला कर के बिना कुछ सोचे समझे पहाड़ी से भागना शुरू किया दोपहर तक उस गांव में पहंुचा जहां मेरी गाड़ी खड़ी थी। आश्चर्य की बात थी कि मेरी गाड़ी सुरक्षित खड़ी थी। गांव वाले मुझे ऑखे फाड़कर देख रहे थे । मैंने किसी से भी बात नहीं की। और जैसे तैसे गाड़ी स्टार्ट कर राजनांदगांव की ओर रवाना हो गया। यहां मेरे परिवार वालों की हालत खराब थी। मोटर सायकल में बैठने के बाद मेरी पैंट की जेब में मुझे कुछ भारी सा लगा। मैंने पैंट की जेब में हाथ डाला तो आश्चर्यचकित रह गया। उसमें नोटों की गड्डी थी। ये पूरे बारह हजार रूपये थे । जब मैं नींद में था तभी नक्सली जेब में नोंट ठूंस दिये होंगे मैं दो तीन दिनों तक घर से बाहर नहीं निकला। नक्सलियों का खौफ और यातना दिमाग से हट नहीं रहा था। इस वाक्यो को याद करने पर आज भी मेरी रूह कॉप उठती है। मेरी इच्छा पुलिस विभाग में काम करने की थी लेकिन घर के हालात ने मुझे दूसरा काम करने मजबूर कर दिया था। बाद मे मैं तरूण छत्तीसगढ का संवाददाता बन गया।

2 comments:

  1. अच्‍छी प्रस्‍तुतिकरण।
    सच में जिसके साथ जो बीतता है वो ही जानता है, कि क्‍या होता है.....
    चलो आपके अच्‍छे कर्म के चलते वहां से सकुशल लौट आए पर ये खौफनाक यादें भूला नहीं जा सकता.........

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  2. ye ek bahut hi khatrnak anubhve raha apke liye aapne mout ko itne karib se dhekha hai ise ghatna ko phadhkar hamare rongte khade ho gaye aap ne uska samna kaise kiya hum aapke himat ko salam karte hain
    Comment as :-Jamil khan

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